नया शहर
सोनू आनंद
नया शहर.. देखा है कभी?
देखा ही होगा?
अक्सर, देखा है न..
कभी ट्रेन से गुज़रते हुए.. कभी कार ट्रिप करते हुए..
नया शहर कुछ अलग ही लगता है.. जैसे ऐसा कुछ देखा नहीं कभी..
सड़कें अलग सी.. कहीं चौड़ी लगती हैं तो कहीं सिकुड़ी सी..
मिट्टी का रंग, पानी का स्वाद.. खाना सब कुछ अलग..
बिल्डिंगें.. लोग.. सब अनदेखे..
पर क्यों?
वही धरती, वही जल.. तो अलग-अलग क्यों?
ये जो शहर होते हैं ना.. हर दस साल में अलग ही रंग में ढल जाते हैं..
जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, ये भी पुराने होते जाते हैं..
पर इनकी उम्र हमारी उम्र से थोड़ी ज़्यादा है..
हमारी औसत आयु अगर 100 है तो इनकी कोई 500 होगी..
ये भी बूढ़े होकर नए शहर जन्म दे जाते हैं..
उन्हीं शहरों में से निकलते हैं कुछ और शहर..
क्या बात है.. प्रकृति के क्या कहने..
आओ इंसानों की बात करें.. कुछ दशकों में सिमटने वाली ज़िंदगानियों की बात करें..
जानते हो.. अगर नया शहर देखना हो ना.. तो उनके साथ देखो जो किसी ना किसी कारण कहीं और जा बसे हैं..
अब वापस आए हैं अपने घर दस-बीस साल बाद.. अब कुछ अपना-अपना सा लगता ही नहीं..
सब कुछ बदल जाता है..
प्रकृति का नियम ही तो है बदलाव..
हम सब घर ढूंढ रहे हैं.. जो चंद साल हमें मिले हैं, उसका आधा सुकून तो हम घरों में ही ढूंढते हैं ना..
पर वो घर रहता कहां है वैसा.. बदल जाता है.. किसी और चीज़ में तब्दील हो जाता है..
किसी के घर के ऊपर पुल बन गए.. किसी का घर बांध के अंदर समा गया.. किसी का घर रीडेवलपमेंट में चला गया..
हाय.. कब तक सुकून उस चीज़ में ढूंढोगे.. जो रहती ही नहीं टिक कर..
ये घर..
हर पहले मौके पे बिखर जाता है..
रह जाती है तो याद.. तुम्हारे सीने में उस बदले मकान की.. उसके विश्वासघात की..
जब घर छोड़ जाते हो पैसे कमाने के लिए, कि इस घर को अच्छे से सजाऊंगा..
तो रूठ जाता है तुम्हारा ये घर भी..
कहता है.. मुझे सामान नहीं, तुम चाहिए.. नए रंग नहीं, तुम्हारे कदमों की चहल-कदमी चाहिए..
तुम भी तो नए शहर जाकर वापस आते हो दशकों बाद..
और कहते हो ये शहर वो शहर नहीं रहा.. मेरा घर अब अपना-अपना सा नहीं लगता..
कैसे लगेगा.. जैसे तुमने बदला है नए शहर को.. दूसरे शहर से आए लोगों ने तुम्हारे शहर को बदला है..
जैसे तुम्हारे कदमों की गूंज रहती है तुम्हारे नए घर में.. तुम्हारे पुराने घर के नए मेहमान.. अपनी गूंज छोड़ गए हैं..
अब इसमें उनका भी कुछ बस गया है..
तुमने देखा है नया शहर?
कितना अलग लगता है ना? जैसे कभी देखा ही नहीं हो..
जानते हो मैंने एक तरीका ढूंढा है नए शहर को पुराना सा देखने का..
जब भी नए शहर जाओ.. उन लोगों को लेकर जाओ जो वहाँ रहते थे कभी..
वो उन नई सड़कों पे पुराने वाले का नक्शा खींचते जाएंगे..
उन नए मकानों में पुराने मकानों की तस्वीर दिखाते जाएंगे..
जैसे हर शहर की धड़कनें हैं वहाँ रहने वाले लोग.. वो तुम्हें पिछले ज़माने की धड़कनों से वाबस्ता कराते जाएंगे..
इस नए शहर के नक्शे में तुम्हें पुराने की परछाइयाँ दिखाते जाएंगे..
उनके घर की महक तुम्हारे अंदर भी बस जाएगी.. और अपने घर से दूर तुम्हें अपने घर का एहसास मिल जाएगा..
नया शहर देखा है कभी?
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