तुम्हें क्या लगता है .... जिंदगी क्या है ?
सोचता हूँ तो समझ नहीं पाता,
ज़िंदगी क्या है... हर उम्र में इसके मायने बदले हैं मेरे लिए,
हर घड़ी इसका मतलब बदला है मेरे लिए.
हर सुबह नया कारण मिला है जीने के लिए .
किसी एक परिभाषा में नहीं समां सकती ज़िंदगी ;
इसके मायने एक से कभी नहीं रहते .
आज जो मेरे लिए ज़रुरी है
कल कोई अहमियत नहीं रखता .
ज़िंदगी को समझने की कोशिश करना
ज़िंदगी की बर्बादी है ...
जीवन को जीना और जो मेरे साथ हो रहा है उससे महसूस करना .
यही ज़िंदगी है .
ना ही इसका मतलब है
ना ही यह बेमतलब है .
यह ब्रह्माण्ड की तरह ही अपार है
ज़िंदगी सही भी है और गलत भी ...
ज़िंदगी काली भी ही और सफ़ेद भी .
ज़िंदगी प्यारी भी है ज़ालिम भी
ज़िंदगी उत्तेज़ना भी है संवेदना भी .
ज़िंदगी जीने में भी है मरने में भी.
हर वो चीज़ जो ज़िंदगी में है मुझ में भी है
ना मैं अच्छा हूँ ना मैं बुरा हूँ
मैं ब्रह्माण्ड का एक कण हूँ जो उसमें है वो मुझ में है.
ना ज्यादा है ना कम .
आज मुझे इतनी समझ है ज़िंदगी की ...
जो अपार है उससे समझ में बंधना समझदारी नहीं लगता मुझे.
जीता हूँ मस्ती में;
क्यूंकि जिंदा हूँ .
जब तक रहूँगा तब तक मस्त रहूँगा ;
जब नहीं रहूँगा तब क्या रहूँगा ...
- - सोनू आनंद
3 comments:
Nice poem. Keep writing bro :)
very nice...meaningful
@vaibhav : thanks.. keep reading ;)
@priyanka: welcome to my blog :)
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